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सफर - मौत से मौत तक….(ep-13)

यमराज और नंदू अंकल दोनो नंदू की हालत देखकर दुखी थे, लेकिन उनके हाथ मे कुछ नही था, ना नंदू माँ को खुश रख पाता था ना ही समीर का ख्याल रख पाता था। हाँ पैसे जितने भी कमाता था माँ के हाथ मे रख देता था, क्योकि उसके पास रहते थे तो स्टेशन में मांगने वालों की बारात होती थी , किसी के पास खाने को कुछ नही होता तो कोई किसी विशेष अंगों से लाचार, अपाहिज, ऐसे लोगो पर दया बहुत आती थी नंदू को, और जेब मे होते थे तो वो सोचता नही था इन पैसों की जरूरत उसे भी पड़ सकती है,
  लेकिन माँ को देने के बाद जेब मे होते ही नही थे तो भला दया करके क्या करेगा।

धीरे धीरे समीर भी बड़ा होने लगा था, अब वो अनाज खाने लगा था, करीब एक साल हो चुके थे समीर को, नंदू रोज पापड़, टॉफी, और नमकीन बिस्कुट जैसी खाने वाली चीजें ले जाने लगा, और धीरे धीरे समीर का अपने पापा का इंतजार करना, अपने पापा के आते ही खुश हो जाना, नंदू को अच्छा लगने लगा था। समीर की मुस्कान देखकर थके हारे नंदू की सारी थकान मिट जाती थी। रोज घर आकर जब तक इसे गोदी में उठाकर आसमान की तरफ उछाल ना ले तब तक खाना नही खाता था, एक अलग सा लगाव होने लगा था नंदू को, नंदू के चेहरे में अब मुस्कान पाई जाने लगी थी, जो विलुप्ति की कगार पर थी।

नंदू की खोई हँसी के साथ जीने की चाहत भी वापस आ गयी थी, गौरी के आदमी से उबरने के लिए एक साल लग गया था, अब समीर का अपने नन्हे कदमो से लड़खड़ाते हुए चलना और नंदू का उसे पकड़ लेना, और फिर उसको अपना हाथ थामकर सहारा देना, और गिरने के डर को उसके दिल से दूर कर देना। काम से आते हि जेब से टॉफी निकालकर उसे थमाना, एक नई प्रेम कहानी जन्म ले रही थी, बाप बेटे की प्रेम कहानी, ऐसा नही है कि प्रेम कहानिया सिर्फ दोस्तो और पति पत्नी के बीच होती है, इंसान सबसे ज्यादा प्रेम अपनी औलाद से करता है, जिस तरह एक लड़का लड़की की प्रेम कहानी हो सकती है उसी तरह एक पिता और बेटे की भी हो सकती है। क्योकि प्रेम का अर्थ है निस्वार्थ भाव से जिससे प्रेम करो उसे हर वो खुशी दो जिसका वो हकदार है, उसकी खुशी में अपनी खुशी ढूंढो, उसकी तकलीफ को दूर करने की कोशिशें करो, उसकी परेशानियां और उसकी उन तकलीफों को भी समझ जाओ जो वो आपको बता नही पा रहा हो। सच्चे प्रेम को आजाद पंछी की तरह रखो, क्योकि अगर वो भी तुमसे प्रेम करता है तो आसमान के सौ चक्कर लगाकर भी तुम्हारे पास ही आएगा।
    
    नंदू एक बार फिर जंग के मैदान में तैयार हो चुका था लड़ने के लिए, क्योकि खुद के लिए वो कभी लड़ा ही नही था, पहले घर चलाने और बहनों की शादी के लिए लड़ा, फिर खुद की शादी के लिए,फिर बाबूजी की तबियत के लिए, उसके बाद गौरी के लिए लड़ने की बारी आई तो वो हार गया। और इस हार से इस कदर टूट चुका था कि फिर से लड़ने की कोई उम्मीद नही थी, लेकिन एक बार फिर उसमे उम्मीद जगी, लड़ने के लिए मकसद मिल गया था, अब समीर की परवरिश, उसको अच्छी शिक्षा देना, उसको पढ़ाने लिखाने के लिए भी एक जंग लड़नी थी, जिसके लिए वो बिल्कुल तैयार था।

"मैं अपने बेटे को पढ़ा लिखाकर बड़ा इंसान बनाना चाहता हूँ, मैं उसको ऐसे अपनी छोटे मोटे काम करके मजदूरों वाली जिंदगी नही जीने दूँगा" नंदू ने रिक्शे में बैठे अनजान महाशयों से कहा।

"कितने में पढ़ता है तुम्हारा लड़का" एक आदमी बोला जो कि अभी नंदू के रिक्शे में सवारी बनकर बैठा था, रिक्शा तेजी से स्टेशन की तरफ जा रही थी।

"अभी डेढ़ साल का है" नंदू ने जवाब दिया।

"अरे अभी तो बहुत छोटा है, अभी से ऐसे सपने, अभी तो उसे खिलाओ पिलाओ, बड़ा इंसान बाद में बनाओगे पहले बच्चे को बड़ा बच्चा तो बनाओ" आदमी ने कहा।

"क्या करे साहब। हम गरीब लोगों के सपने पूरे होने में ज्यादा वक्त लगता है, इसलिए अभी से सपना देखने लगूँगा तो सही समय पर पूरा होगा" नंदू ने कहा।

"लेकिन सपनो का गरीबी अमीरी से क्या लेना, वो तो किस्मत की बात है, किसका सपना पूरा होगा किसका नही"  आदमी बोला।

"सपना देखने से ही सपने पूरे नही होते साहब!  सपने पूरे करने के लिए कोशिशे करनी पड़ती है, अभी मैं दिन रात मेहनत करके पैसे कमाने की सोच रहा हूँ, अभी से कमाऊंगा तब जाकर उसके पांच छह साल होने तक जमा होंगे और उसे अच्छे स्कूल में दाखिला मिलेगा" नंदू ने कहा।

"बात तो सही है, सपने देखना आसान है, लेकिन बिना कोशिश के सपने बस आंखों में कैद रह जाते है..….वाह मजा आ गया….कसम से आपकी बात से तो मुझे नई कहानी के लिए एक शीर्षक मिल गया…." आदमी बोला।

नंदू ने आश्चर्य से पूछा- "कहानी के लिए शीर्षक! क्या आप कहानी लिखते हो?…."

"हाँ….मैं लेखक हूँ, छोटी मोटी कहानिया लिख लेता हूँ और किसी डायरेक्टर को पसंद आ गयी तो वो फिल्मो के लिए चुन लेते है, लेकिन इस बार बहुत बड़ा शीर्षक मिला है, और कहानी भी बहुत बढ़िया दिमाग मे आयी है" आदमी ने कहा।

"अच्छा, ऐसा भी क्या शीर्षक है" नंदू ने पूछा।

"गरीब के सपने……बहुत अच्छी कहानी लिखूंगा इसपर" आदमी ने कहा।

नंदू को एक तंज सा लगा, उसे लगा वो आदमी उसका मजाक बनाने के लिए बोल रहा है, इसलिए नंदू ने अगला कोई सवाल नही किया। लेकिन वो आदमी थोड़ा ज्यादा चटर बटर करने वाला था, जबकि उसके साथ बैठा आदमी अभी तक एक लफ्ज नही बोला। बस कभी कभी मंद मुस्कान छोड़ दे रहा था।

लेखक खुद की तारीफ किये जा रहा था, और गरीबी अमीरी का फर्क समझाने के लिए उदाहरण भी पेश कर रहा था, जिससे तंग आकर नंदू ने खुद ही मुद्दा बदल दिया

"ये दूसरे साहब इतने चुप क्यो है, जरूर आप भी लेखक ही होंगे….क्योकि जैसे मेरे दोस्त सारे रिक्शे वाले है, वैसे ही लेखक का दोस्त लेखक ही होगा" नंदू ने कहा।

"नही नही….ये मेरा छोटा चचेरा भाई है, दर्शल ये पैदाइशी गूंगा है, और काम कुछ करता नही, मेरे साथ ही रहता है" लेखक साहब ने कहा।

इस बात पर भी उस आदमी ने एक मंद मुस्कान छोड़ी।

नंदू समझ चुका था लेखक साहब थोड़ा जुबान के कड़वे थे,    जो मन आता वो बोल पढ़ते थे, और कहानी को गरीब के सपने शीर्षक देना भी शायद कोई तंज नही था।

स्टेशन पहुँचे तो लेखक साहब ने पूछा- "कितने पैसे हुए"

"बस पांच रुपये हुए साहब….अब खाली साहब से काम नही चलेगा, लेखक साहब बोलना सही रहेगा" नंदू ने जवाब दिया।

हंसते हुए महाशय ने जवाब दिया- "जो मर्जी बोलो….आपकी जुबान है, लेकिन अगली मुलाकात जब भी हो याद रखना मुझे, बताना ना पड़े की मैं लेखक हूँ, पहचान जाना"

लेखक साहब ने जेब से एक दस रुपये का पुराना से नोट निकाला और नंदू को पकड़ाते हुए कहा- "तुम्हारा बेटा जरूर बड़ा आदमी बनेगा, तुम्हारा सपना भी जरूर पूरा होगा"

"खुले पैसे नही है साहब मेरे पास" नंदू को लगा पांच रुपये लौटाने पड़ेंगे।

"अरे नही, ये सब तुम्हारे ही है, मैंने वापस तो मांगे ही नही…." लेखक साहब ने कहा।

"लेकिन भाड़ा तो पांच ही है, मैं ज्यादा पैसे नही ले सकता" नंदू ने ईमानदारी दिखाते हुए कहा।

"अरे ये मुफ्त के पैसे नही है , मुझे इतनी अच्छी कहानी दी है आपने….और एक कल्पना से पिरोई कहानी की किम्मत एक लेखक ही जान सकता है, और कब उसके दिमाग मे क्या कहानी आने लग जाती है ये तो खुद लेखक भी नही जानता, तुम ये पैसे रखो, पांच रुपये भाड़ा और पांच रुपये उस कहानी के लिए जो तुम्हारी वजह से मुझे मिली है" लेखक साहब ने कहा और जबरदस्ती दस रुपये पकड़ाकर अपने चचेरे भाई को सारे बैग पकड़कर आगे चल पड़े…।

"छोटे भाई को कही काम नही मिल रहा था तो लेखक साहब ने अपने पास ही रख लिया, और मुफ्त में तो उसे रोटी नही खिला रहे, फिर भला मुफ्त में मुझे पांच रुपये क्यो देते, मेरी बातों से जरूर उनका कोई बड़ा फायदा होना होगा" नंदू ने खुद से कहा।

कुछ इस तरह जाने अनजाने लोगो के किस्से, और कहानिया, नंदू की जिंदगी रोज अलग सी लगती थी, लेकिन घर पहुंचते ही वापस अपनी जिंदगी उसे वापस मिल जाती थी, बिना किसी छुट्टी के, बिना थके, कड़ी मेहनत से जिंदगी नाम की गाड़ी को धक्के लगा रहा नंदू अपने माँ का इकलौता सहारा और अपने बेटे का सबकुछ बन चुका था, खुद कम लिखा पड़ा होने की वजह से उसे घर पर पड़ा तो नही सकता था, और समय भी नही होता था इतना, लेकिन एक अच्छे प्राइवेट स्कूल में उसका दाखिला करवाया था। ऐसे स्कूल में जहाँ मिडिल क्लास लोगो के बच्चे भी नही पढ़ पाते थे,

कौशल्या ने नंदू को समझाया कि सरकारी स्कूल में करा लें, उस अमीरों वाले स्कूल और सरकारी स्कूल में बस पैसे का फर्क होगा, पढ़ाई तो एक जैसी होनी है, बच्चे का अपना दिमाग चलना चाहिए।

"नही माँ….इस स्कूल में अच्छी पढ़ाई होगी, और पैसे की चिंता तुम क्यो कर रही हो, एक ही तो बेटा है मेरा….जिंदगी भर इसके लिए ही तो कमाना है, और मेरा है ही क्या" नंदू बोला।

"एक बेटा….एक बेटा करके सिर पर चढ़ा लेते है लोग….इतना लाड़ भी मत करना कि बच्चा बिगड़ जाए…" कौशल्या ने कहा।

"सारे बच्चे नही बिगड़ते माँ.... और समीर इतना मासूम, कितना प्यार करता है हम लोगो से, और आप  हो कि सारे जमाने के लोगो को एक नजर से देखते हो" नंदू बोला।

"बचपन मे सब मासूम ही होते है, लेकिन अभी से थोड़ा सख्ती करेगा तो आदत बनी रहेगी, मुझे तो कुछ समझता ही नही है वो, बिल्कुल नही डरता, दिन भर खेलता रहता है….और पापा के नाम से धमकाने के योग्य भी नही रहती मैं….वो जानता है पापा उसे कभी नही डांटेंगे" नंदू की माँ बोली।

नंदू हंसते हुए बोला- "अगर बात प्यार से मान लेगा तो डाँटने की जरूरत ही क्यो पड़ेगी, और तुम भी तो बचपन से मुझे बहुत प्यार करती थी,मैं लगता हूँ क्या बिगड़ा हुआ"

कौशल्या भी क्या बोलती, नंदू के पास उसकी हर बात का तोड़ था, और नंदू को भला बिगड़ा हुआ भी कैसे बोलती, जब से होश संभाला सारी जिम्मेदारी अपने सिर पर ले चुका था वो….।

यमराज और नंदू अंकल दोनो छोटे नंदू और समीर की हंसी ठिठोली और कौशल्या की चिंता भरे चेहरे पर एक खुशी को देख रहे थे।

तभी यमराज ने कहा- "अंकल जी , अब तो समझ आ ही गया होगा कि एक माँ कभी गलत नही बोलती……कहा था ना माँ ने की इतना लाड़ प्यार मत दिखाओ , सिर पर मत चढ़ाओ….तब मजाक लगती थी माँ की बाते" 

"जिंदगी में सबकुछ देख और समझ चुका हूँ मैं…. पिताजी का होना और नही होना दोनो में धरती आसमान का फर्क देख चुका हूँ, और एक माँ भी भविष्य देख सकती है….ये जान चुका हूँ…. एक बच्चे को एक पिता खाना दे सकता है, उसकी जरूरत पूरी कर सकता है, उसकी जिद पूरी कर सकता है, उसे डाँट सकता है, कुछ भी कर सकता है यार….एक बाप अपने बच्चे के लिए सब कुछ कर सकता है, लेकिन जब संस्कारो की बात आती है तो हार जाता है…. मैं उसको सबकुछ देता रहा लेकिन संस्कार….गौरी होती तो शायद संस्कार भी देती…." नंदू ने कहा।

" एक पिता संस्कार भी दे सकता है आपको शायद देना नही आया, आपको बचपन से आदत हो चुकी थी लोगो की जरूरत पूरी करने की….बस वही करते रहे, और पने उसकी हर जरूरत पूरी कर दी कि अंत में उसे कोई जरूरत महसूस नही हुई शायद आपकी जरूरत भी नही" यमराज ने कहा।

नंदू ने यमराज की तरफ थोड़ा घूरकर देखा और हामी भरते हुए सिर हिलाया और कहा- "शायद ठीक कहते हो"

नंदू एक बार फिर खुद को देख रहा था सात साल के बच्चे को गुदगुदी लगाते हुए उठाकर अपने कमरे में ले गया, और बिस्तर में सुला दिया और अपने बांहों में भरते हुए उसे कहानी सुनाने लगा। कहानी सुनाते सुनाते कभी अपने ऊपर पेट मे सुला लेता और कसकर पकड़ता है तो कभी उसके नन्हे हाथों को पकड़कर उसे लोरी सुनाता। समीर भी पापा के सीने को तकिया बना लेता और एक पैर उनके पेट मे टिकाकर सो जाता।
  समीर को आदत हो गयी थी पापा से कहानी सुनने की और लोरी सुनकर सोने की। और नंदू की आदत इतनी बिगड़ गयी कि बिना उसे बगल में सुलाये उसे नींद ही नही आती थी, जब दोनो ठिठोली करते तो नंदू अपनी चेहरे की बारीक दाड़ी  उसके गाल में चुभाता, समीर अपने नन्हे हाथों से पापा के मुंह को धक्का देता और खिलखिलाकर हंसते हुए छटपटाने लगता था।
  समीर को इस तरह तंग करने नंदू को शुकुन देता था, और रोज दुकान से कुछ लेकर खिलाये बिना भी चैन नही मिलता था। नंदू और समीर के बीच दोस्ती बढ़ने लगी थी, अब समीर भी पापा को कभी कभी कहानी सुनाने लगता था, नंदू के समझ में कुछ नही आता था, लेकिन समीर की आवाज  सुनने में उसको परम आनंद मिलता था। कभी कभी समीर नंदू को गौरी की याद दिला देता था,
क्योकि नंदू जब सोने लगता था और गौरी को नींद नही आती थी तो वो भी नंदू के सीने में सिर रखकर उसके गाल को बार बार अपनी तरफ खिंचती थी - "अजी सुनो तो सही….सो गए क्या…."
नंदू गौरी के गर्दन के नीचे से हाथ डालकर उसके पीठ में रखते हुए कहता - "हाँ सो गया तुम भी सो जाओ"
क्योकि नंदू थका होता था, उसे पता होता था गौरी कोई मतलब की बात नही करेगी, बस उसके दिल मे जो आया वो बोलेगी और बात की खाल निकालेगी।

ठीक उसी तरह समीर भी नंदू के सीने में सिर रखता और पापा के गाल को अपनी तरफ करके कहता - "पापा सुनो ना……सुनो तो सही……"
  नंदू समीर को खींचकर थोड़ा और अपने पास खींचते हुए बोलता- "सुन रहा हूँ, बोलो तुम…."

समीर ने पापा के छाती में हाथ रखा और एक कान भी रखा और कहा "पापा आपके यहाँ कौन है, ऐसी आवाज क्यो आती है "

"अरे कुछ नही बेटा, ये ऐसे ही आवाज करता है, जब बड़े हो जाओगे तब बताऊंगा" नंदू ने जवाब दिया।

"बताओ ना पापा….अभी बताओ, कौन है यहाँ"  समीर जिद करने लगा।

"यहाँ….यहाँ तुम्हारी माँ है बेटा…." नंदू ने बोल तो दिया था लेकिन फिर उसे लगा कि शायद गलत बोल दिया, हाँ बोला तो सही था, गौरी नंदू के दिल मे थी, लेकिन अब समीर जो बात की खाल निकालने लगा था उसका क्या करेगा।

"आप कितने गंदे हो पापा….मेरे सब दोस्तो के पास उनकी मां होती है, सबके पापा ने उनकी माँ को बाहर रखा है, और आपने अंदर क्यो रखा है, मुझे मेरी माँ को देखना है" समीर ने कहा।

नंन्दू के आंख में आसूं थे और लफ़्ज़ों में उसके सारे जज़्बात बह रहे थे समीर के सवाल का जवाब देना मतलब सैकड़ो सवालों को और जन्म देना था, इसलिए नंदू ने मन ही मन खुद से कहा- "हर किसी के बस की बात नही है किसी को अपने यहाँ बसाकर रखना…. मैंने तेरी माँ को ही नही, ढेर सारे गमो को भी बसाया है यहाँ , और अब तू ही उन गमो को बाहर निकाल सकता है "

"बोलो ना पापा, माँ को बोलो बाहर आ जाये" समीर अब जिद पर उतरने लगा तो नंदू ने मजबूरन डांटते हुए कहा- "सो जाओ बेटा, जिद नही करते, सुबह स्कूल भी जाना है"

कहानी जारी है


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3 Comments

Khan sss

29-Nov-2021 07:23 PM

Good

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Seema Priyadarshini sahay

14-Sep-2021 10:01 PM

बहुत ही खूबसूरत कहानी का भाग

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Miss Lipsa

13-Sep-2021 10:53 PM

Waah

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